तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
हे तथागत!
शीश झुकता है तुम्हारे ज्ञान के प्रति,
किंतु है संदेह मन में,
क्या सही था,
ज्ञान हित में, भार्या व पुत्र का परित्याग आखिर?
(1)
कुछ नियम संसार के हैं
और उनसे ही बंधी है सृष्टि, ये संसार सारा।
रात छिप कर त्यागना सब,
आचरण कैसे कहूँ था श्रेष्ठ, हे गौतम तुम्हारा ।।
प्रीत-परिणय में बंधे तुम,
किंतु पावन अग्नि की साक्षी शपथ हर तोड़ आये।
था तुम्हारे ही बदन से,
पुत्र जो जन्मा, उसे किसके सहारे छोड़ आये।।
हे तथागत!
है नमन तुमको तुम्हारे धर्म के प्रति,
किंतु है संदेह मन में,
क्या सही था,
तोड़ कर विश्वास हर, सन्यास से अनुराग आखिर?
(2)
तुम महा करुणामयी थे,
सृष्टि तुम में सिंधु करुणा का निरंतर देखती थी।
एक घायल जीव को भी,
नीर आँखों से बहा जो दृष्टि कातर देखती थी।।
नेत्र वो अर्धांगिनी के,
वक्ष में पलती हुई क्यों पीर को न देख पाये।
नींद में सोती हुई उस,
प्रियतमा को त्यागने में पग न किंचित लड़खड़ाये।।
हे तथागत!
नत् सदा हूँ मैं तुम्हारे ध्यान के प्रति,
किंतु है संदेह मन में,
क्या सही था,
प्रीति तजना, वक्ष में धर व्यग्रता की आग आखिर?
(3)
जन्म है परिणाम सुत का,
और इस परिणाम के कारण तुम्हीं तो थे तथागत।
जीव के अस्तित्व के,
आधार तुम थे और पहला क्षण तुम्हीं तो थे तथागत।।
बिन तुम्हारी योजना के,
जन्म राहुल का धरा पर तो कभी संभव नहीं था।
तुम भला कैसे कहोगे,
वह तुम्हारे प्रेम का, दायित्व का उद्भव नहीं था।।
हे तथागत!
पूजता तुमको तुम्हारे तेज के प्रति,
किंतु है संदेह मन में,
क्या सही था,
छीनना अधिकार शिशु का, हर्ष का हर राग आखिर?